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खलिश

 


दिल के ख़दशात सदाक़त में तो ढाले न गए
आसतीं में कभी फिर नाग वो पाले न गए

और मज़लूम ने थक हार के दम तोड़ दिया
पूछने हाल अंधेरों का उजाले न गए

मेरी क़िस्मत में तो कुछ और बलन्दी थी मगर
हम से परवाज़ के इमकान खंगाले न गए

बन के इक ख़ार चुभ करते हैं सीने में हनोज़
चंद माज़ी के सवालात जो टाले न गए

याद ने खोल दिये ज़ख़्मों के टांके आख़िर
दिल के वो दर्द किसी तौर संभाले न गए

ज़िन्दगी भर की मुसाफ़त के हैं शाहिद “मुमताज़”
आज तक पाओं के तलवों से जो छाले न गए

ख़दशात- आशंकाएँ, सदाक़त- सच्चाई, मज़लूम- पीड़ित, परवाज़- उड़ान, इमकान- संभावना, ख़ार- कांटा, हनोज़- अभी तक, माज़ी- भूतकाल, मुसाफ़त- सफर, शाहिद- गवाह


Written by Mumtaz Aziz Naza



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