मुफ़लिस
अश्क़ों के दौर में भी जाने कहाँ से
हंसी ढूंढ लेते हैं
कुछ लोग हैं
जो मुफलिसी में भी ख़ुशी
ढूंढ लेते हैं
जिन्हे सताता नहीं है ग़म खाली
दस्तरख्वान का
फाकाकशी में
भी वो आसूदा ज़िंदगी
ढूंढ लेते हैं
जिन्हें आरज़ू
नहीं मालो- ज़र की, तख्तो-ताज की
किसी झोपड़ी में
भी वो ख़ुशी की घड़ी
ढूंढ लेते हैं
खुश्क रोटियों
में क्या ज़ायका
है ये उनसे
पूछो
एक वक़्त खाने में भी जो लज़्ज़ते ज़िंदगी ढूंढ लेते
हैं
ऐशो इशरत से बसर न हुई तो क्या
ज़िंदगी नहीं
यही हैं कुछ लोग
जो शौक में मुफलिसी ढूंढ लेते
हैं
हर बशर यहाँ आसाइश
का ख्वाहा नहीं अशफ़ाक़
वो लोग भी हैं
जो मेहनत में बंदगी
ढूंढ लेते हैं
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