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चुभते लम्हे


चुभते लम्हे 


बक़ैद-ए-ग़म तखै़युल के हिरन हैं
मेरे अंदर भी जाने कितने बन हैं

फ़ज़ा में ज़हर घुलता जा रहा है

हर इंसां के बतन में कितने फन हैं

अजब है हाकिमों का तौर अबके

वतन में रह के भी हम बेवतन हैं

बढ़ा है क़ाफ़िला मक़तल की जानिब

तो अबके सर बकफ़ अहले चमन हैं

अगर तुम ज़ुल्म हो तो सब्र हैं हम

अँधेरों में उजाले की किरन हैं

बिखरते हैं जो हर सू आज "मुमताज़"

ये लम्हे ज़िन्दगी भर की चुभन हैं



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Written by Mumtaz Naza


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