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एक तन्हाई ऐसी भी

 


फ़र्श से अफ़लाक तक पहुंची है रुसवाई मेरी
जाने क्यूँ बेचैन रक्खे सब को दानाई मेरी
فرش سے افلاک تک پہنچی ہے رسوائی مری
جانے کیوں بے چین رکھے سب کو دانائی مری
कोई साया भी पड़े मुझ पर तो दम घुटता है अब
मुझ को तन्हा एक पल छोड़े न तनहाई मेरी
کوئی سایہ بھی پڑے مجھ پر تو دم گھٹتا ہے اب
مجھ کو تنہا ایک پل چھوڑے نہ تنہائی مری
जिस जगह मैं हूँ, वहाँ कोई नज़र आता नहीं
क़ैद मुझ को रात दिन रखती है यकताई मेरी
جس جگہ میں ہوں وہاں کوئی نظر آتا نہیں
قید مجھ کو رات دن رکھتی ہے یکتائی مری
कोई क्या समझे मेरे दिल की तहों के ज़ाविए
ख़ुद मुझे कब नापनी आई है गहराई मेरी
کوئی کیا سمجھے مرے دل کی تہوں کے زاوئے
خود مجھے کب ناپنی آئی ہے گہرائی مری
वक़्त आया तो किसी दीवार का साया न था
हाँ, यही दुनिया रही बरसों, तमाशाई मेरी
وقت آیا تو کسی دیوار کا سایہ نہ تھا
ہاں یہی دنیا رہی برسوں تماشائی مری
उस का वादा था करेगा हर दुआ हर दम क़ुबूल
मांगती हूँ, तो नहीं होती है सुनवाई मेरी
اُس کا وعدہ تھا، کریگا ہر دعا ہر دم قبول
مانگتی ہوں تو نہیں ہوتی ہے شنوائی مری
रास्ता लंबा है, मंज़िल का निशां कोई नहीं
चलने दे लेकिन न मुझ को आबलापाई मेरी
راستہ لمبا ہے، منزل کا نشاں کوئی نہیں
چلنے دے لیکن نہ مجھ کو آبلہ پائی مری
आज भी "मुमताज़" मुझ को वो ज़माना याद है
जब हुआ करती थी अंजुम से शनासाई मेरी
آج بھی ممتازؔ مجھ کو وہ زمانہ یاد ہے
جب ہوا کرتی تھی انجم سے شناسائی مری
फ़र्श - ज़मीन, अफ़लाक - आसमान, रुसवाई - बदनामी, दानाई - बुद्धिमत्ता, तनहाई - अकेलापन, यकताई - अनोखापन, ज़ाविए - पहलू, आबलापाई - पाँव के छाले, अंजुम से - सितारों से, शनासाई - पहचान

Written by Mumtaz Aziz Naza

 


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