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शिकायत





हम    ही करते गये उन्हें हमसे  प्यार कब था
हमारी  मुहब्बत  पे उन्हें भला ऐतबार कब था

दश्तो   सेहरा  में  जाने का सबब  मत पूछिये
महफ़िल-ए-हुस्न  में भी हम को क़रार कब था

टूटे   ख्वाबों  का   धुवाँ सा है  और कुछ नहीं
हमारी   आँखों   में  पहले कभी गुबार कब था

खिज़ा का शिकवा करने से भी अब क्या हासिल
हमारी  किस्मत  में  वो मौसम-ए-बहार कब था

तेरे  वस्ल    की  आरज़ू   में  मेरी  खता   न देख
देख के अर्ज़-ए-तमन्ना पे मेरा अख्तियार कब था

गैर   कह   के  मुझे और रुस्वा   न कर ऐ  दोस्त
यह   बता  तेरे  अपनों   में   मेरा शुमार  कब था

रोज़े  अज़ल  से है  मेरी बदनसीबी का सिलसिला
बजाते  खुद मैं अपने हाल  का गुनहगार  कब था

मौत की  ख्वाहिश भी हमीं  ने की है अशफ़ाक़
वरना   मौत  को  भी   हमारा इंतज़ार  कब  था



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