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मैं जितना देह में था




मैं जितना देह में था
उतना ही देह से बाहर रहा
जुलूसों में कुचला
नारों में उछला
झंडों में फड़फड़ाया
और अंत में बीड़ी के धुयें में धुंआ होकर
छाती में किसी खांस सा फंसा रहा.

मैं अपनी देह में था
तो सिर्फ भूख था
देह के बाहर एक जटिल आंकड़ा
एक भद्दी गाली
हिंदुओं में थोड़ा ज्यादा हिन्दू
मुसलमानों में थोड़ा ज्यादा मुसलमान
और इंसानों में थोड़ा कम इंसान था.

दया, करुणा, मदद, मुआवजा
इन सारे शब्दों को अर्थ देता हुआ
मैं तालियों में पिटा
भाषणों भुना
सभाओं के बाद धूल सा झड़ा
और अंत के किसी पुराने पुल की तरह
भरभराकर ढह गया.

--अशोक कुमार

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