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भ्रम


 भ्रम

शायद किसी लम्बे सुनसान रास्ते का भ्रम है यह
या फिर एक गहरी नींद का
या शायद स्वप्नों की स्मृतियों का।


एक ठोकर के बाद दुख रहा है पैर का अंगूठा
नाखून के ठीक नीचे से बहता हुआ रक्त
जमीन पर गिरते ही थक्के में बदल गया है।

इन रास्तों पर कोई साइनबोर्ड नहीं है
ऐसे ही पुराने धब्बों को चीह्नते हुए
मैं सभ्यताओं के आदिम पते पर जाना चाहता हूँ।

कितनी ही परतें चढ़ गयीं है इन रास्तों पर
सोचता हूँ कि क्या इन्हें खुरचकर
ढूंढे जा सकते हैं कुछ पैरों के निशान।

इन घने अंधेरों में प्रवेश करते हुए
मैं हथेलियों से छूता हूँ कठोर दीवारें
इन दीवारों के भीतर न जाने कितनी दीवारें हैं
और दरवाज़ों के भीतर न जाने कितने दरवाज़े।

मैं ज़ोर-ज़ोर से उच्चार रहा हूँ कोई मंत्र
कोई सबक बार-बार दोहराता हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ वो तमाम उत्तर
जिनके प्रश्न किसी प्रेत के जैसे मेरे सामने खड़े हैं।

मेरी आँखों में तैर रहे हैं प्रकाश के सातों रंग
अपनी-अपनी आवृत्तियों के साथ
अपनी-अपनी तरंगदैधर्यो के क्रम में
प्रकाशमान हो जाने के लिए।

ये कैसी प्रतिक्षाएँ हैं यहां
जो आदिकाल से मुक्तिमंत्र का जाप करती हुई
अपनी अंतिम परीक्षाओं के इंतज़ार में हैं।

एक चीख अटकी है मेरे कंठ में
एक शब्द फूट पड़ना चाहता है
एक प्रतिध्वनि है मेरे भीतर जो कहती हैं
कि अंधेरे में होना अंधकार में होना नहीं होता
जैसे उजाले में होना नहीं होता प्रकाश में होना।

--अशोक कुमार

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