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लम्बी रात

 


लम्बी रात


यह रात इतनी लम्बी है कि
प्रहरों में नहीं, कल्पों में ढल रही हैं
ऐसा लगता है कि पृथ्वी
भूल गयी है अपनी धुरी पर घूमना.

मेरी आंखों में एक मरुस्थल है
और मेरे हृदय में एक जंगल
मुझे पानी भी चाहिए और रास्ता भी
किन्तु मेरी चिंता यह है कि
कहीं यह पृथ्वी सच में घूमना न भूल जाये.

किसी सूने, सरसराते, सन्नाटा ओढ़े ठोस रास्ते पर
मैं सदियों की ठिठुरन लिए हुए
किसी शापित, दिग्भ्रमित
किसी पराजित की तरह दौड़ रहा हूँ

और इस इंतज़ार में हूँ कि
अभी लौटेगी ब्रह्मांड की यात्रा पर निकली पृथ्वी
और सूरज की तरफ घूम जाएगी.
मेरी जाग में घुल गयी है थोड़ी सी नींद

नींद में थोड़ी सी बेहोशी
बेहोशी में थोड़े से स्वप्न
और स्वप्न में इतना नमक है कि
यह रात, रात नहीं कोई समंदर लगती है.


--अशोक कुमार

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