शिकायत
बारहा ठहर के माज़ी को बुलाते क्यूँ हो
जा चुके हो तो फिर अब याद भी आते क्यूँ हो
डर न जाए कहीं दिल चीखते सन्नाटे से
शब है तारीक अभी शमअ बुझाते क्यूँ हो
वक़्त तो ख़ुद ही मिटा देता है हर एक निशां
अपने हाथों से मेरा नाम मिटाते क्यूँ हो
मैं हूँ अलमास, मुझे दिल की पनाहों में रखो
अश्क की तरह निगाहों से गिराते क्यूँ हो
वार करना है तो फिर आँख मिलाओ पहले
हो के शर्मिंदा निगाहों को झुकाते क्यूँ हो
जाने वाले कहाँ "मुमताज़" पलटते हैं कभी
रोज़ दहलीज़ पे अब दीप जलाते क्यूँ हो
बारहा – बार बार, माज़ी – अतीत, शब – रात, तारीक – अंधेरी, अलमास – हीरा, अश्क – आँसू
Written by Mumtaz Aziz Naza
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