इंक़लाब
हम जगायेंगे तो अलख इंक़लाब की
जगेगी यारों
हमारे ही लहू से एक नई फसल उगेगी यारों
जिसे भी सौंपी डोर हमने वही बातिल
निकला
मसीहा बन के जो पेश
हुआ वही क़ातिल निकला
हर मोड़ पे
सजी हैं जो सियासत की
दुकाने
क्यों न अब उखाड़
डालें ये हिक़ारत की दुकाने
न ही अब वो रहनुमा
रहे न वो वतन रहा है
सदियों से जो अमन चैन का
मस्कन रहा है
लूट फसाद कश्तो खून
का अब तो मंज़र आम है
हर फर्द के हाथ में यहाँ
अब तो खंजर आम है
यूँ भला अपने मुल्क
पे रहेंगे शर्मिंदा कब तक
ऐसे रहेंगे तो फिर रहेंगे भला ज़िंदा कब तक
इरादों में होगा जो दम तो तक़दीर बदल सकते हैं
हम वो नौजवान हैं जो तस्वीर बदल
सकते हैं
दस्त-ए-जुनूँ से हर मुश्किल को हम आसान बनायेंगे
हम चाहेंगे तो फिर वही हिंदुस्तान
बनायेंगे
हालत बिगड़े सही पर चाहें तो संभल सकते हैं
हम खुद को बदल पायें तो देश बदल
सकते हैं
Post a Comment