तरब का पर्दा
तरब का पर्दा भी आख़िर इसे बचा न सका
चिराग़ बुझने से पहले भी लपलपा न सका
हज़ार वार किए जम के रूह को कुचला
ज़माना हस्ती को मेरी मगर मिटा न सका
सितम शआर ज़माने का ज़ब्त टूट गया
जो मेरे ज़ब्त की गहराइयों को पा न सका
जता जता के जो एहसान दोस्तों ने किए
मेरा ज़मीर ये बार-ए-गरां उठा न सका
जहाँ जुनून मेरा मुझ को खेंच लाया है
वहाँ तलक तो तसव्वर भी तेरा जा न सका
क़लम भी हार गया, लफ़्ज़ साथ छोड़ गए
तेरा वजूद किसी दायरे में आ न सका
छुपा के दिल की कदूरत गले मिलें “मुमताज़”
हमें हुनर ये अदाकारियों का आ न सका
तरब – ख़ुशी, सितम शआर – जिसका चलन सितम करना हो, बार-ए-गरां – भारी बोझ, जुनून – सनक, तसव्वर – कल्पना, कदूरत – मैल, अदाकारी – अभिनय
Written by Mumtaz Aziz Naza
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