हद
किन एहसास में
हम खुद को
डुबा बैठे
किस आग में
दामन जला बैठे
किस संगदिल से
हम जा
टकराये
किस मगरूर को
दिल से लगा
बैठे
यूँ तो थे
मंज़िलों की जुस्तजू
में
और राह में ही
खुद को लुटा बैठे
जिस राहे इश्क़
पे हँसे थे कभी
उसी राह पे
खुद को आज़मा
बैठे
बस एक दर्द की
कमी थी अब तक
लो दर्दों से
खाना-ए दिल सजा
बैठे
कुफ्र की हद
भी यूँ हो
गयी अशफ़ाक़
एक बन्दे को
ही हम खुदा बना
बैठे
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