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तहज़ीब



तहजीब






नये    ज़माने   की   कोई  नयी  तहज़ीब   लगता  है
मुस्कान के बदले दर्द देना  फिर भी अजीब लगता है

जिससे   होने  को  दूर  हमने   दुनिया  ही  छोड़  दी
जाने क्या  बात   है   हर  पल  वही  करीब लगता है

अब  तो हर वो  शख्स  जो मिलता  है मसीहा बन के
उसके  बारे में सोचता हूँ  तो  वो  ही रक़ीब लगता है

सौ  साल  वो   हमे जीने  की  दुआ  दे  गया  लेकिन
पल  भर   भी ज़िंदा   रहना  मुझे  अजीब  लगता  है

ज़माने की  ठोकरों  ने  बदगुमान कर  दिया है  मुझे
अब   तो   हर  फर्द ही  किरदार का गरीब लगता है

फरेबों  ने  मेरे मंतिक   का ज़ाविया  ही   बदल दिया
के   नन्हे  रहनुमा  का  साया   भी  मुहीब  लगता  है

खंजर  की आरज़ू में   फिर पुश्त बेताब है अशफ़ाक़
ये  दस्तूर-ए-फरेब-ए-इश्क़ मुझे मेरा नसीब लगता है

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