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दस्तूर-ए-इश्क़



दस्तूर-ए-इश्क




दस्तूरे इश्क़ किसी रोज़  बदल  जाये  तो  क्या बात हो
परवाना अपनी ही आग में जल जाये तो  क्या  बात हो

जिनके  इंतज़ार में  चिराग  के साथ रत  भर जलें  हम
बस पलक झपके और वो निकल जाये तो क्या बात हो

चाँद    को   देख    के  मचलना  तो  सबको  आता  है
कोई    हमे    देख  के  मचल  जाये  तो  क्या  बात हो

दुश्वारियां   हैं   के   हमे  हर  दम  तलाशा    करती  हैं
कोई बला उनके मुस्कराने से टल जाये तो क्या बात हो

नम  लकड़ियों    की तरह तो रोज़  सुलगती है  ज़िंदगी
खुश्क   पत्तों  की तरह कभी जल जाये तो क्या बात हो

तेरी  निगाहों  के ख़ुलूस पे बीमारों के हाल सम्भलते हैं
तेरी  तुर्शी पे भी मेरा दिल संभल जाये तो क्या  बात हो

तेरे  चेहरे  को  मेरी निगाह का साया दे  दे कोई  और
मेरे   चेहरे  पे  तेरी  धूप  मल जाये  तो  क्या  बात  हो

तेरी  तारीफ  को  अल्फ़ाज़  में कुछ यूँ पिरो के रख दें
के बन  वो  खुश्जौक  ग़ज़ल  जाये  तो  क्या  बात  हो

ज़िंदगी  तेरे  संग   गुज़रे  तो  कोई  शिकायत  नहीं
मेरी  जान  तेरे क़दमों में निकल जाये तो  क्या बात हो

किसी  रोज़  हवाओं  के परों पे सवार हो के अशफ़ाक़
तेरे संग इन  सितारों में निकल जाये  तो  क्या  बात हो

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