तीर-ए-निगाह
निगाहे यार को हमने फिर से तीर लिखा है
कभी सोनी कभी शीरी
कभी तुझे हीर लिखा है
तेरी गलियों से
गुज़रते कदम जो बांध लेती
है
उन हँसी लबों की तबस्सुम
को ज़ंजीर लिखा है
हो जाता है
इश्क़ में हाल
अक्सर कुछ ऐसा
तुझको कभी दाता, कभी खुद को फ़कीर लिखा है
पल भर के लिये तेरी निगाहों का मुझसे मिल जाना
इस लम्हे को थम गये वक़्त की तासीर लिखा है
तेरी ज़ात से कोई मुअज़िज़ा वाबस्ता न सही मगर
कइयों ने तुझे अपना
मुर्शिद अपना पीर लिखा है
तेरे सरापे को किन लफ्ज़ो में बयां करे अशफ़ाक़
इतना काफी है के अपने ख्वाबों की ताबीर लिखा है
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