कच्चा सोना
धरती का तू कच्चा सोना
तुझसे है श्रृंगार धरा का
आषाढ़ के पावस दिन जब
मूसलधार बरसता पानी
जा पहुंचते खेतों में हलधर
हल-बैल,कुदाल या ट्रैक्टर
होते किसान के सब साथी
डाल जुआ बैलों के कंधे
चीर डालते धरती का सीना
किसान बिजते धान बीज के
मिट्टी,पानी और तपिश पा
फूटते अंकुर बनता मोरी
नाजुक सी रेशम हरी भरी
मखमली कोमल सी खेतों में
इंतजार करती नाजुक हाथों का
पहिरोपना उत्सव से ही
गीत-नाद के साथ मोरी का
बेटी सम होता प्रत्यारोपण
बिछ जाती खेतों में चहुं ओर
अति वृष्टि या अनावृष्टि से
शेष बचे तो जीवन पाते
हरी चुनर से धरा सुहाती
कोपलें जैसे चन्द्रहार सी
कच्ची बाली नगीने जड़ी
बढ़ती शीत, पकती बाली
खुले खेतों में सूरज से मिल
रूप धरती कंचन सी
सुनहरे तने सुनहरी पत्तियां
बालों में जैसे सोने के मोती
धरती के ये कच्चे सोने
हैं किसानों की मिल्कियत
बोझे हैं खरिहान की शोभा
गांज बताती किसान की हैसियत
Written by Usha Kumari
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