मेरा दर्द न जाने कोय
माना तू है बसन्त की पहचान
मैं भी हूँ इसी मौसम की देन
तू पीली धोती सा पीताम्बर
मैं भी निलाभ लिए गगन सा
एक ही माटी एक ही गुलशन
फिर क्यों जुदा हुई पहचान?
मेरे गुण भी कम नहीं तुझसे
क्यों न लोग समझे एक से
तू मादक ,मदमस्त , मातंगी
मैं शान्त,शीतल,पवन की संगी
तू अमीरों की शान भले ही
मैं तो हूँ दीनों की चहेती
तुझसे ज्यादा स्वाद है मुझमे
स्वादिष्ट व्यंजनों की हूँ खान
तेरी चर्चा सुन - सुन कर
अब मैं हो गई हताश
रूप के हैं सब पुजारी
गुण न इनसे देखे जाते
कहते बनता नहीं मुझसे
पर सुन! मैं हूँ तेरी संगिनी
चाहने वाले भूल तुझे अब
जा पहुँचेंगे मजरों के ठौर
रह जाएंगे हम दोनों ही
खोकर अपने रूप सौंदर्य
तेरी फलियां बड़ी ही नाजुक
चटख पड़ेंगे सूर्य की ताप से
बिखर पड़ेंगे तेरे सारे मोती
मेरी फलियां कमजोर नहीं
जो बिखर जाएं इन तापों से
मेरी कलसी जीवटता की
पाठ सिखाती दानों को
बिखरें न ही साथ छोड़ें
हँसिये की प्रहार से हम
कट जाएंगे हम दोनो ही
हम दोनों मिलेंगे खलिहानों में
जहाँ न होंगे तेरे पीत वसन
बस सूखे से मुरझाये हम
डाल मिलेंगे गले में हाथ।
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