शिरीष के फूल
शिरीष तुम्हें तब से जानती हूँ
जिस दिन तुम्हें मनरेगा वाले
सड़क के किनारे लगा गए थे
तब याद आया था
इतिहास का पन्ना
जिसमें शेरशाह,अशोक
आदि राजाओं का जिक्र था
जिन्होंने छायादार पेड़ लगाए थे
सड़कों के किनारे
उस वक्त तेरी नाजुक पत्तियां देख
गुलमोहर का भ्रम हुआ था
पर हर रोज तेरे पास खड़ा होना
तेरा परिचय करा गया
बस डर था कहीं कोई तुम्हें उखाड़ न दे
वो डर आज भी है
जब बेवजह
तेरी टहनियाँ कटी देखती हूँ।
बसन्त में बिन पत्तों के
सूखे खड़खड़ाते फलों से लदी थी तुम
पर तेरी जीवटता तो तब देखी
जब सारे पौधे
बैशाख की धूप में
झुलसते नजर आए
वहीं तेरी शाखाओं ने
कोमल पत्तों का वसन धर
इठलाती,सकुचाती
सूर्य किरणों को चूमती
अपने यौवन पर इतराती
छोटे-छोटे, गोल-गोल
नए कलियों को सृजा।
कलियां पुष्पित हो
किरणों की ही तरह
धवल,कुछ हरीतिमा लिए
आधिपत्य जमाया शाखाओं पर
बारीक रेशम सा केसर,पराग
कोमलता से परिपूर्ण
शीतलता देता नैनों को
कहाँ से आई इतनी जीवटता तुममें
कहाँ से आया धैर्य तुममें
एक साथ दोनों पीढ़ियों को
कैसे सम्हाला तुमने
पुराने पके फलों ने भी साथ न छोड़ा
और नए भी आकार लेने लगे
शायद पुराने फलों ने
नए फलों को जीवटता का
कोई सूत्र हो सिखाना
या कहीं सूरज का कोई कर्ज तो नहीं तुम पर
जो तुम इस तपती गर्मी में उससे रही वसूल।।
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