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पहाड़ी औरतें

 


पहाड़ी औरतें!
नज़दीक ब्याही गयीं,
मगर दूरियां कायम रहीं ताउम्र
पार करती रहीं.....
जिंदगी के उतार-चढ़ाव
टेढ़े-मेढ़े रास्तों की तरह।
पहाड़ी औरतें!
पीठ पर किलटा उठाती,
सूखे पत्ते बटोरती,
हरी घास काटती
मुस्कुरातीं रहीं।
और उनके साथ!
मुस्कुराते रहे बान के जंगल।
गाती रहीं घासनियाँ
और सीढियां चढ़ते रहे
हारियाये खेत।
पहाड़ी औरतें!
पतियों को मैदानों में भेज
खटती रहीं जंगल-जंगल
वो चुन्नी में बांधकर लाती रहीं
बच्चों के लिये....
काफल के गुलाबी दाने
काले-पीले आखरे
और तोड़ लाती रहीं
खिले हुए बुरांश के फूल।
पहाड़ी औरतें!
पशुओं को प्रेम देती रहीं
उनके के भी नाम रखे गए
उन्होंने भी स्नेह पाया
उन्हें भी पुचकारा, दुलारा गया।
अपने बच्चों की तरह।
कपकपाती ठंड!
उनके गाल सहलाकर,
उनको लाली देती रही
भरोटे के बोझ तले उनकी गर्दन
नृत्य करती रही
हवाओं की ताल पर।
उनकी झुर्रियों से झांकता है!
अभाव में गुज़रा जीवन
दरातियों के दिए घाव
कहते हैं संघर्ष की कहानियां
और परेशानियों को मुंह चिढ़ाती है,
बुढ़ापे में भी सीधी तनी रीढ़।

Written by Ashok Kumar



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