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मंज़र

 


मंज़र है सर-ए-राह गुज़र, और तरह का.
दरपेश है इस बार सफ़र और तरह का.
उठता है समंदर में जो तूफ़ान , अलग है,
दरियाओं में होता है भँवर और तरह का.
शमशीर ज़नी ख़ून से वाबस्ता है , लेकिन,
रखते हैं क़लम वाले हुनर और तरह का.
देखे से ही घट जाती है दस्तार की तौक़ीर,
दस्तार में होता है जो सर और तरह का.
दुनिया तो समझती है उसे इश्क़ का आज़ार,
है दिल में मेरे दर्द मगर और तरह का.
बोई गई नफ़रत में किसी तौर सर-ए-शाख़,
आ ही नहीं सकता है समर और तरह का.
वो सुन के ग़ज़ल मेरी बहोत ख़ुश हुए ‘वासिफ़’,
रखते थे जो अन्दाज़-ए-नज़र और तरह का.


Written by Wasif Farooqui



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