कसक
फिर नफ़रतों ने इश्क़ की मीनार तोड़ दी
दरवाज़ा जब न टूटा तो दीवार तोड़ दी
پھر نفرتوں نے عشق کی مینار توڑ دی
دروازہ جب نہ ٹوٹا تو دیوار توڑ دی
फूलों से उसको प्यार है तोड़ा नहीं उन्हें
उसने कली मेरे लिए इक बार तोड़ दी
پھولوں سے اس کو پیار ہے توڑا نہیں انہیں
اس نے کلی میرے لیے اک بار توڑ دی
फिर इक ज़ुबाँ से बह रहे थे किर्चियों से लफ्ज़
खामोशियों ने शीशे की वो धार तोड़ दी
دل میں اگر چہ چبھ رہ تھے کرچیوں سے لفظ
خاموشیوں نے شیشے کی پر دھار توڑ دی
औलाद से नहीं है मुहब्बत किसे बताओ
किसने ये डाल पेड़ की फलदार तोड़ दी
اولاد سے نہیں ہے محبت کسے بتاوٴ
کس نے یہ ڈال پیڑ کی پھلدار توڑ دی
मुमकिन है कुछ भी,साथ मिले अपनों का अगर
चूहों ने मिल के शेर की इक गा़र तोड़ दी
ممکن ہے کچھ بھی, ساتھ ملے اپنوں کا اگر
چوہوں نے مل کے شیر کی اک غار توڑ دی
लेकिन उन्होंने करके ही हद पार तोड़ दी
ان سے میرا یقین کبھی ٹوٹتا نہیں
لیکن انہوں نے کر کے ہی حد پار توڑ دی
ख़ुद अपने फैसले से वही मुतमइन नहीं
मुंसिफ ने आगे बढ़ के तभी दार तोड़ दी।
خود اپنے فیصلے سے وہی متعین نہیں
منصف نے آگے بڑھ کے تبھی دار توڑ دی
Written by Ghazala tabassum
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