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स्त्री का दर्द




स्त्री जिस दर्द को ओढती है
पहनती है ,जीती है
क्या कभी कोई समझ पाएगा...?
बेटी से लेकर दादी, नानी तक का सफर
न जाने कितनी पीङा ,कितना दर्द सही होगी
जीवन पथ पर चलते चलते
कितने समझौते की होगी
स्त्री जुबाँ से उफ्फ तक नहीं करती पर
अन्दर हीं अन्दर तो बहुत कुछ सही होगी
उर्जापूंज और धैर्यशिलता की मिशाल बनती
स्त्री वो गीली मिट्टी की बनी होती
जिसे जब चाहों जैसे चाहों
जिस ढाँचे में ढालो ,ढल जाती
वो अपने लिए कब जीती ..!!
माँ बनना उसके लिए परिपूर्णता का एहसास होता
नौ महीनों तक असहनीय पीङा झेलती
अपना सौदर्य तक विसार देती
कर्त्तव्यों के बोझ तले अपना काबलियत
अपनी डिग्रीयों के साथ खुद का
अस्तीत्व तक को दफन कर देती
पर स्त्री के इस त्याग को कौन समझता...??
स्त्री का दर्द अनवरत टपकता है ,रिसता है
जैसे पर्वत के शिखाओं पर उगे
हरे हरे चिकने शैवाल पर जमें बर्फ
धीरे धीरे पिघल कर किसी खाई में
टिपटिप कर बूँद बूँद गिरता है
जिस की ध्वनि सुनाई तो पङती पर
किसी को आकर्षित नही करती
स्त्री मिट्टी की सुन्दर मूरत नहीं
बल्कि वो भी जीती जागती इंसान है
कौन समझता...?
उसे सर्वगुणसंपन्न बनाया गया
उस में दर्द छुपाने की
चाहत और सपनों को अन्दर दबा रखने की
निपुणता ईश्वर से हीं प्राप्त है
कई दफे दमित इच्छाएँ अन्तस की
आंच पर उबल पङते पर
उन पर मार देती है सहनशीलता की ठंढी छीटें
और ले लेती है एक लम्बी आहें भरी सांस
इतना कुछ सहने के बाद
स्त्री को रिवाडस मिलता है
तुम करती हीं क्या हो...??
तुम्हारा काम हीं क्या है...?
हे पुरुष...!!
साँसे तो तुम्हारे हाँथों गिरवी रख दिया हमने
अस्तित्व का भी मेरा पता नहीं
अब है हीं क्या मेरे पास जो
तुम चाहते हो ...!!!

Written by Bandna Pandey


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