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मैं सच हूँ

 


सच को कोई न बिजता

सच से जाने क्यों डरते लोग


कोई न करता इसकी खेती
जो की जाती सच की खेती


वजूद खत्म हो जाता कब का
सच को ईश्वर ने पँख दिए


अब मैं खुद हो गई सक्षम
अपना अस्तित्व बचाने को


सच का सदा रहेगा वजूद
बिना सहारे बिना परिश्रम


न खेतों न खलिहानों में
कभी कहीं भी उग आती मैं


पथरीली हो या ऊसर सी भूमि
या हो सड़कों का किनारा


या कोई पगडंडी कच्ची
परती भूमि तो नसीब नहीं


न मिला कभी एकछत्र साया
अस्तित्व अपना बचाने को


सहेज लेती मैं सारी ऊष्मा
फुट पड़ती बजरों में भी


नन्हीं सी मेरी नाजुक कलियां
हिम से नहाई मेरी पत्तियां


हिम से ही मेरे कुसुम पराग
चढ़ती कभी देवों के शीश


औषध के गुण भी मुझमें
तब भी न कोई बीजे तो क्या?


मैं तो उग ही आऊंगी
हर क्षेत्र हर प्रदेश।।

Written by Usha Kumari

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