खैर-मक़्दम
वो आये हैं जब चमन में, तब जाके बहार आई है
हर पत्ता, हर फूल, हर कली
मुस्कराई है
यूँ निगाहें झुका के, मुस्करा के गज़ब कर
जाना
बता तो ये क़यामत
की अदा कहाँ से पायी है
ऐसे जल के मर जाने का शौक कब था परवाने को
ये तो तेरा हुस्न
है जिसने ये आग लगायी है
क्या लिख दू
तेरे तिलस्म -ए-शबाब को मैं
बस एक क़यामत है
जो मेरे दिल पे आई है
तेरे हुस्न की अब
क्या तारीफ करें अशफ़ाक़
लगता है मेरी किसी ग़ज़ल
ने हयात पायी है
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